
Monday, 28 December 2015
Saturday, 19 December 2015
Tuesday, 15 December 2015
Sunday, 13 December 2015
सुंदर और असाधारण राधा

राधा जब कृष्ण से मिली थी तब तक उनका विवाह हो चुका था। कृष्ण के साथ उनका संबंध ऐसा था कि उसके साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि उन्हें सबका सहयोग भी मिल जाता तब भी उनका विवाह संभव नहीं था। यह बात राधा जानती थी तब भी अपने जीवन की अंतिम सांस तक वह कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही। कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक-दूसरे के साथ रहने के बजाय कुछ और बनाया, जो इससे कहीं अधिक श्रेष्ठ था।
यदि व्यक्ति में कामना की निष्फलता को स्वीकार करने का साहस है तो यह संभव ही नहीं कि किसी भी स्थिति में वियोग से पराजय स्वीकार करेगा।
सब कृष्ण को एक मात्र सत्य मानते है और राधा उनके लिए या तो कृष्ण का एक अंश है या फिर एक ऐसा साधन, जिससे वे कृष्ण की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करते हैं। सबके लिए राधा एक उर्जा है-एक विशिष्ट उर्जा जो केवल कृष्ण की ही है। इसी दृष्टिकोण की वजह से राधा को कभी कृष्ण से भिन्न होने ही नहीं दिया गया। वियोग के वे क्षण राधा को दिए ही नहीं, जिनमें अपने होने की वेदना को झेला हो। यह सत्य है कि बाद में उसने कृष्ण के साथ एकरूपता प्राप्त कर ली थी पर उसने अपना पूरा जीवन या कम से कम जीवन का एक बहुत बड़ा भाग निरंतर आघातों को झेलने में बिता दिया होगा। ये क्षण कैसे असामान्य साहस के क्षण रहे होंगे।
कहा जा सकता है कि राधा वास्तव में साहसी थी तो जब उसे पता लगा कि उसका इष्ट उसे प्राप्त नहीं हो सकता तथा कृष्ण से उसका मिलन कभी नहीं हो सकता, तो उसमें अपने जीवन को समाप्त पर देने का साहस भी होना चाहिए था।
तो राधा ने आत्महत्या क्यों नहीं की? वह प्रारंभ से जानती थी कि कृष्ण के साथ रहना असंभव है। हालांकि यह बात उसके लिए दुख का कारण रही होगी पर उसने स्वयं को यह बात स्वीकार करने के लिए तैयार कर लिया होगा और इसे सहना सीख लिया होगा।
इसमें मतभेद हो सकते है कि आत्महत्या करना अति साहस का काम है या अति कायरता का। पर कुछ परिस्थितियों में स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करने की अपेक्षा जीवित रहना निस्संदेह अधिक साहस का काम है।
राधा निराशा के लिए पहले से ही तैयार होगी और धीरे-धीरे इसे जीवन का एक सामान्य अंग मान लिया होगा और उसे जीवन के प्रति किसी प्रकार की आशंका का अनुभव ही नहीं रहा होगा। उसने अपना पूरा जीवन जिया और जीवन भर निराशा को वहन किया और इस प्रकार निराशा को जीवन पर हावी नहीं होने दिया कि आत्महत्या का विचार भी आता।
क्या आप किसी चिड़चिड़ी राधा की कल्पना कर सकते है? जो कृष्ण को वृंदावन छोड़ने के लिए, उस पर निष्ठा न रखने के लिए तथा उसके प्रति उदासीन रहने के लिए चिड़चिड़ाती हो और उसके प्रति प्रेम को मान्यता दिलवाने या उसके साथ रहने के उपाय ढूंढने के लिए कहती हो।
ऐसा कोई भी आचरण उसके लिए अप्रासंगिक है। प्रारंभ से ही वह ऐसी कोई आशा नहीं पाले रखती अत: कुंठित होकर निराश होने की भी उसके लिए कोई संभावना नहीं है।
मैं उस राधा की कल्पना करना चाहूंगी जो वृंदावन में अकेली रही, बिना कृष्ण के, बिना कृष्ण से मिलन की आशा के।
क्या वह दुखी थी? संभवतः नहीं, क्योंकि प्रसन्नता की आशा तो उसने पहले ही छोड़ दी थी। जो लोग प्रसन्नता का जीवन जीते हैं उनके लिए उनका उद्देश्य दुख का कारण बन सकता है, क्योंकि यदि वह उद्देश्य पूरा न हो तो वह दुखी हो जाते हैं पर जिन लोगों का ऐसा कोई लक्ष्य ही न हो और उसे प्राप्त करने की प्रसन्नता भी न हो तो उनका दुख उस बच्चे के दुख की तरह नहीं होता जो चट रोने लगता है।
राधा की जिन बातों से उसकी दुर्बलता तथा कोमलता प्रकट होती प्रतीत होती है, वे वास्तव में उसकी चारित्रिक दृढ़ता तथा धैर्य की उपज हैं।
पुराणों में राधा देवी बन जाती है। तब से लेकर आज तक कभी भी किसी ने राधा को चरित्रहीन नहीं माना। कृष्ण और राधा के संबंध को तुच्छ दृष्टि से नहीं देखा। यह उचित भी है क्योंकि वे जीवन को सामान्य मोहों के बिना जी गई, समय के पार, रिक्ति में जी गई। देवी हुए बिना ये कैसे संभव है कि कोई नदी में जाकर नहाए, पानी लाए, दूध बेचें और हजारों दूसरे काम करे और ऐसा जताए जैसे इसका उसके लिए कोई अर्थ है, पर उसके भीतर एक मौन आवाज लगातार आती रहे कि ऐसा कुछ नहीं है जिसकी आस हो। और जब हम किसी देवी-देवता की बात करते है तो यह कैसे कह सकते है कि वह प्रसन्न है अथवा दुखी? वह एक साथ दोनों भी हो सकते है और नहीं भी।
वह कुछ ऐसा भी हो सकता है जो हमारी समझने की शक्ति से बाहर हो और उसका वर्णन भी हम न कर सकें।
Thursday, 10 December 2015
Tuesday, 8 December 2015
Monday, 7 December 2015
Looking at the world through the heart
