Friday, 25 March 2016

चाह की मंज़िल






चाह की मंज़िल
कब मिली किसी को यहाँ
फिर क्यों सोचते हो?
मिल जायेगी तुमको
सपनों की दिवार घेरे
यथार्थ को बाहर किये
किस लोक में घुमा रहे हो
अपने मन को
दूरियां बढ़ती रहेगी
इसलिये
आओ
कुछ पल बात करें
फिर न जाने
मिले की न मिले।


मनीषा शर्मा~

12 comments:

  1. Wah Athi Sundar Kavitha Likhi hai aapne Manisha ji :)

    The Solitary Writer

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    1. Everyone knows this in their heart, Sunaina. But at the the end its their mind they listen to instead.

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  3. truth nicely depicted through words.

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  4. मनीषा जी, इंसान जो चाहता है वो उसे मिले ही यह जरुरी नहीं है। इस बात को बहुत ही सुन्दर तरीके से व्यक्त किया है आपने।

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    1. बस यही तो ज्योति जी, हमें बस इतना ही समझना हैं कि जो अभी मौजूद हैं उसका लुफ्त ले आगे की चिंता में अभी को न खो दे :)

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  5. Bilkul sahi!
    Sundar abhivyakti!!

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  6. wah! bahut acchi lines likhi hain aapne......

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