चीन के एक धर्म गुरु थे-'ताओ-नू-बू'।वे बड़े ज्ञानी और गुणी थे। दूर-दूर से शिष्य उनके पास शिक्षा ग्रहण करने आते थे। चुनसिन नाम का एक शिष्य था। उसने धर्म गुरू की रात-दिन सेवा की। गुरू जी भी अपने शिष्य की सेवा से प्रसन्न थे। एक दिन शिष्य ने पूछा, गुरूदेव, क्षमा करें, जिस दिन से मैं आपके पास आया हूं, आपने धर्म के सार के विषय पर कभी चर्चा नहीं की।'गुरू ने उत्तर दिया,'वत्स, जिस दिन से तुम यहां आए हो, मैं कभी तुम्हें धर्म का का सार बताए बिना नहीं रहा। सोचो, जब तुमने मुझे नमन किया है, तो क्या मैंने अपना सिर नहीं झुकाया? जब कभी तुमने चाय का कप मुझे थमाया है क्या मैंने प्रेम से उसे ग्रहण नहीं किया है? जो कोई अतिथि हमारे आश्रम में आता है उसकी हम आवभगत नहीं करते?
ये सब धर्म के ही कार्य-कलाप है। इन्हें हम धर्म से प्रथक नहीं मान सकते।'
शिष्य धर्म का सार्थक अर्थ सुनकर नतमस्तक हो गया।
सबक: धर्म का सार ग्रंथों में नहीं विनीत और सरल जीवन में निहित है।
(अहा! ज़िंदगी से)
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