Friday, 20 November 2015

एक मुकम्मल वतन का ख्वाब(2)





अवश्य पढ़ें- भाग - 1


हर युवा अपने लिए मुकम्मल वतन, आदर्श देश के ख्वाब देखता है। एक ऐसा देश, जहां उसके लिए अवसर हो और उसकी प्रतिभा को पहचाना जाए। एक ऐसा देश, जहां वह अपनी एक जगह, एक पहचान बना पाए।एक ऐसा वतन, जहां सुकून हो, अभिव्यक्ति और अपने हिसाब से जीने की आजादी हो। वह देश के बदलते राजनीतिक दृश्य को मूकदर्शक की तरह न देखें, बल्कि उसमें एक नागरिक की तरह हस्तक्षेप कर सके।

मगर दुर्भाग्य से 'भारत' ऐसा आदर्श वतन अभी नहीं बन सका है।

आज देश में भ्रष्टाचार, आतंकवाद और सांप्रदायिकता इतनी बढ़ चुकी है कि इसके महान अतीत-वृक्ष की जड़ें भी शायद अब हिलाने लगी हो।

भारत ने जितना भी विकास किया है वो बहुत ही असमान, असंगत, असमतल किस्म का है। बड़े राज्य, बड़े शहर विकसित हुए तो अमेरिका या सिगांपुर की होड़ करने लगे, गांव वहीं साठ के दशक पर अटक गये। मोबाइल क्रांति आ गईगांवो में। गांव में कोक और पेप्सी आ गए, मगर गांव तो गांव शहरों में भी साफ पीने का पानी नहीं आता। लड़कियों को पढ़ने की आज़ादी मिली, मगर उनके प्रति अपराध बढ़ गए।

हम कब, कहां, कैसे इस असमान और असंगत विकास के शिकार हुए, उस बिंदु का पता लगाना मुश्किल है।


देश की सबसे बड़ी ताकत उसका अपार मानव संसाधन है। यह संसाधन अपने आप में भारत का सकारात्मक पक्ष है। भारत के हर हिस्से में अगर समान रूप से विकास की लहर पहुंचे तो, गांव के लोग महानगरों की तरफ न भागें। शिक्षा की सुविधा हर जगह एक-सी हो, ताकि देश का हर नागरिक सक्षम हो सके। जिस रोज यह मानव संसाधन शत-प्रतिशत सक्षम और शिक्षित होगा, भारत को महाशक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता।


मुझे अपने सपनों के भारत में और इस भारत के लोगों में एक कमी सदा दिखती है... हम अनुशासन नहीं सीख सके, दूसरों को धकिया कर खुद आगे भागते हैं। जरूरत से ज्यादा छीन लेने की प्रवृति, सरकारी सुविधाओं के प्रति बेमानी भाव ही है, जो हमारे देश को खूबसूरत नहीं रहने देता। हम अपनी रेलों, बसों और सड़कों, स्टेशनों को लगातार गंदा करते जाते हैं।विश्व प्रसिद्ध रहे हमारे पर्यटन स्थल अपना आकर्षण खो रहे हैं। पीकदान और कचरापात्र की जरूरत महसूस करते ही नहीं और हर दिवार या आहाते टॉयलेट बने हुए हैं।

हम अपना सिविल सेंस लगातार खो रहे हैं।

मुझे धार्मिक तौर पर सहिष्णु और आस्था को अपने घर के मंदिर के कोने तक सीमित रखने वाला भारतीय समाज चाहिए। जहां आस्थाएं निजी हों, वे बाजारों या सार्वजनिक स्थलों तक न पहुंचे।

क्या ये समझने की जरूरत नहीं है कि आखिर हम अपनी आस्थाओं का इतना शोर क्यों मचाते हैं?

हम भारतवासी मिलकर पूरी दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र बनाते हैं, फिर भी कितनी अजीब बात है कि भारत का आम वोटर राजनीति से विमुख रहता है। वह शुतुरमुर्ग बन नेताओं को गाली देता है, मगर वोट देते समय विवेक की जगह जाति, वर्ग और पैसे से प्रभावित होता है। साफ महसूस कर सकती हूं कि हमारी राजनीति अब नैतिकता और समाजोन्मुख नहीं रही। यह वोट-बैंक और जाति-वर्ग के बल पर चलती है।

युवाओं की दखलंदाजी राजनीति में बस उतनी ही है, जितनी हो सकती थी, यानी कुछ युवा नेताओं को यह सौभाग्य मिलता है, जिनके माता-पिता राजनीति में हो।


यूरोप के अधिकाशं। देशों में 'ग्लोबल'होने के साथ-साथ संस्कृति और प्रकृति दोनों को सहेजा है। मैं ऐसे भारत का सपना देखती हूं जो संस्कृति-आधुनिकता का संगम हो।जहां कोई भूखा न सोए, जहां बच्चे काम के बजाए शिक्षा के लिए जाएं, जहां हर इंसान सुरक्षित महसूस कर सके।


सपनों के भारत का बखान कर लेने से तो ऐसा देश नहीं बनेगा, हमें अपने हाथों से इसे वह रूप देना होगा। हमें अपने देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझना होगा, हमें सहनशील बनना होगा।

हमें बहुत गहरी संस्कृति और मानवता की जड़ें मिली हैं, इन्हें हम सींचेंगे तभी विकास की नई शाखाएं निकलेगी। भारत का आदर्श और स्वप्निल स्वरूप हमें ही सृजित करना है।

ऐसे में अल्बर्ट आंइस्टाइन की ये पंक्तियां मुझे हमेशा 'आदर्श' को परिभाषित करने की प्रेरणा देती हैं- 'आदर्श सपना होता है, इसे सत्य में बदलने के लिए कर्तव्य व कर्म जरूरी है। जो आदर्श हमेशा मेरे सामने रहे हैं और जिन्होंने मुझे जीवन के आनंद से लबरेज किया है, वे हैं-अच्छाई-सुदंरता और सत्य'।


4 comments:

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    1. उम्मीद करती हूं, इसे पढ़ने वालों पर कुछ असर भी करेगा :)

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  2. मुक्कमल भारत की सोच हर भारतीय की होगी तभी ये सपना साकार होगा. मुझे मनीषा की सोच अच्छी लगी और १००% विश्वास हे की हर भारतीय को भी अच्छी लगेगी.

    राजनीती छोडो और देश को बचावो. जय हिन्द! जय भारत!
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    Kalpesh Makwana

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    1. शुक्रिया Kalpesh सही कहा आपने, राजनीति छोड़ हमें देश की सोचना होगा।

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