Wednesday, 18 November 2015

नये सपनों का भारत (1)



आज जो भारत हमारे सामने है। इस भारत के कई सपने हैं। कुछ राजनीति की जमीन से उगते हैं तो कुछ समाज के उर्वर प्रदेशों से। कुछ सपने उन आंखों के है, जिन्होंने अतीत देखा है, तो कुछ उनके जिनकी निगाहों में युवा रंग झिलमिलाते हैं। इस एक भारत में बहुत सारे भारत है।और जितने भारत हैं, उतने सपने। इन सपनों का कोई एक रंग नहीं है, हो भी नहीं सकता। पर सपनों से जो आकृति बनती है, उसे तो एक ही होना होगा। इन भांति-भांति के सपनों को मिलकर एक रूप लेना होगा। यही इस भारत की सबसे बड़ी चुनौती है।


...एक भारत यह सपना देखता है कि उसके उजाड़ बंजर पड़े खेतों में बादल घिर आएं, बूंदे बरसे और फसल उगे, दूसरा भारत प्रगति के नए शिखरों को स्वप्न में पास आता महसूस करता है। एक अन्य भारत अपने सपनों को सदियों पुरानी रूढ़ियों के वजन तले दबता देखता है, एक भारत प्राचीन के गौरव को फिर से लौटा लाना चाहता है... अंतहीन हैं भारत के स्वप्न...

...बहुत से सपने गलत भी हैं, बहुत से नाकाफी। कुछ सपने बेबुनियादी और कुछ बेबस...भारत सपनों की देहरी पर खड़ा है... वह कुछ पुराने सपने भूल गया है और कुछ पराये सपनों की गुंजलके भी उसे घेरे हैं।


एक भविष्य उसके सामने है, पर विगत से वह किस भाषा में बात करे,यह वह सीख नहीं पाया है।


यह भारत जो सभ्यता का पालना रहा, उसकी करोड़ों संतानें, भूखी-बिमार-फटेहाल पशुओं से भी बदतर जीवन जीती हैं...

हमें एक समद्ध-सशक्त भारत के साथ, एक अखंड भारत का स्वप्न भी देखना है... सचमुच विचित्र हैं भारत के सपने...

गंगा के मैदानों से लेकर ब्रह्मपुत्र की वादियों तक एक देश सदियों से बनाने की कोशिश कर रहा है।


असंख्य जातियां, समूह, लोग और उनका जीवन जैसे किसी इतिहास की प्रतिक्षा में है। अभी भारत के इस स्वप्न को भाषा नहीं मिली है, कि यह खुद को अभिव्यक्त कर सकें... सतह पर जो दिखता है, गहरायों में उसके रंग और आयाम सब बदलते जाते है।


भारत की सतह पर एक चमक दिखती है, पर भीतर यथार्थ शायद इतना चमकिला नहीं है।भारत की सतह पर भ्रष्ट व्यवस्था और एक उदास राष्ट्रीय जन-जीवन दिखता है, पर यहां भी तह में कुछ और सच्चाइयां जागती मिलेगी। ये सच्चाइयां जनता की आशा, विश्वास और एक महाजाति के अपराजित जीवन को भीतर ही भीतर कोई रूप दे रही हैं।


भारत हारने के लिए नहीं है, इतिहास की यह आश्वस्ति उसके पास है। पर भारत वह होने के लिए भी नहीं है, जो आज वह है।संसार का कोई भी भू-भाग ऐसा नहीं है, जहां पृथ्वी की प्रत्येक मानव नस्ल समाहित हो ,इस कदर एकरूप हुई हो, न ही कोई ऐसा भू-भाग है, जो ज्ञान के इतने सारे रूपों को हजारों साल से रचता रहा हो।

और ऐसा भू-भाग नहीं है, जो अपने आत्म को ही भूल गया हो, या फिर उसकी गलत व्याख्याएं कर आत्ममुग्धता की विस्मृति में खोता गया हो।


आजादी के बाद भारत ने एक महान स्वप्न देखा था-उस सपने की परवाज़ बड़ी थी। हमारे आज के अनगिनत छोटे-छोटे सपने मिलकर जिस दिन फिर से एक बड़े स्वप्न में बदलेंगे, उस दिन से एक नया भारत जन्मेगा।हम फिर नए सपनों का भारत बनाना चाहते हैं तो आज फिर से हमें ज्ञान की ऐसी परंपरा का विकास करना होगा, जिसकी जड़ें अपनी धरती में हों, जो हमारे विचार, व्यवहार और समस्त जीवन में लोकतांत्रिक चेतना को विकसित करे और ऐसा माहौल बनाए हर तरफ, जिससे सच्ची मानवीय स्वतंत्रता की आकांक्षाएं फिर से पनप सकें।


नये सपनों का भारत एक नये आकाश, एक नई जमीन और कुछ नये मौसमों के इंतजार में है और उन्हें अपने ही भीतर कहीं रच भी रहा है...ये मेरा और आपका भारत है।

9 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिखा है आपने.

    ReplyDelete
  2. Aisa sapno ka Bharat ek sapna sa lagta hai

    ReplyDelete
    Replies
    1. अनीता अगर हम अपने इस सपने को अपने खुद के कंधों पर उठाए और अपनी सोच और ईमानदारी से पूरा करें तो ये सपना पूरा हो सकता है।
      इसमें नेताओं की भागीदारी की उम्मीद और गुंजाइश ना के बराबर हो।
      आज देश में सफाई अभियान और खूले में शौच न जाने के खिलाफ अभियान चल रहा है, अब आप ये बताओं क्या ये बातें वाकई किसी नेता के समझाने पर समझनें वाली बात है?

      Delete
  3. Yeh Sapna bahut door nahi hai! Agar hum vishwas ke saath uski tharaf bhade, tho yeh sapna such ho saktha hai.

    xoxo - Style.. A Pastiche - styleapastiche.com

    ReplyDelete
    Replies
    1. पर सुरूवात अपने आप से करनी होगी। किसी नेता या सरकारी पहल का इंतजार नहीं करें।

      Delete
  4. Every single human being needs to participate in building this sapno ka Bharat.

    ReplyDelete
    Replies
    1. बिल्कुल सही कहा अनीता :) अपने-अपने स्तर पर जितना भी कर सके।

      Delete