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Saturday 31 October 2015

ज़िन्दगी एक किताब



एक किताब

कुछ अधजले पन्नों की

कुछ गायब पन्नों की

कुछ रंगहीन तस्वीरों की


एक किताब

नई जिल्द की चाह में

फिर से लिखे जाने की चाह में

नए नज़रिए से पढ़े जाने की चाह में

नयी बुक सेल्फ की चाह में

एक नये शब्दकोश की चाह में


एक किताब

जिसमें कुछ आदर्श

जिसमें कुछ जज्बात

बहुत से रहस्य

बहुत सा रोमांच


एक किताब

आज मैंने पढ़ी

एक जिदंगी

आज मैंने पढ़ी।।


मनीषा शर्मा~

Friday 30 October 2015

उम्मीद








बूंद दर बूंद

भाप बन,सागर ख्त्म होता है

बूंद दर बूंद

बारिश बरस,सागर भरती है।।


मनीषा शर्मा~



Tuesday 27 October 2015

The little girl in her



I look around and wonder why do people look at a married woman differently? She might look better dressed, maybe wearing an ornament or two that mark her married. But she's still a girl at heart, sindoor and bindi don't make her a woman. She may be still learning how to run a home, she still might be struggling taking care of not just herself but two and more people, she might not always like to hear 'what does your husband do'. Marriage doesn't suddenly turn a girl into a woman. For that matter having kids doesn't necessarily do the same either. Celebrate who she really is, celebrate the child in her, she may be anyone around you, your friend, your sister, your mother, a total stranger. She's not supposed to be responsible for innumerous things, countless chores, it's just her desire for perfection that she does what she does. This is for every wonderful woman I know. Grow up but take your own sweet time & let the little girl in you live forever. And for all my male friends, cherish her, spoil her and most importantly let her be. She wasn't born to take care of you, it's her heart that makes her do so.

Monday 26 October 2015

#Haiku मनमर्ज़ियां



जिदंगी मेरी

मनमर्ज़ियां मेरी

रूको या जाओ


मनीषा शर्मा~

Friday 23 October 2015

मर्यादापुरुषोत्तम राम या रावण?





मर चुका है रावण का शरीर

स्तब्ध है सारी लंका

सुनसान है किले का परकोटा

कहीं कोई उत्साह नहीं

किसी घर में नहीं जल रहा है दिया

विभीषण के घर को छोड़ कर

 

सागर के किनारे बैठे हैं विजयी राम

विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए

ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक

बार-बार लक्ष्मण से पूछते हैं

अपने सहयोगियों की कुशल-क्षेम

चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान !

 

मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण

कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को

अशोक वाटिका से

पर कुछ कह नहीं पाते हैं

 

धीरे-धीरे सिमट जाते हैं सभी काम

हो जाता है विभीषण का राज्याभिषेक

और राम प्रवेश करते हैं लंका में

ठहरते हैं एक उच्च भवन में

 

भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका

यह समाचार देने के लिए

कि मारा गया है रावण

और अब लंकाधिपति हैं विभीषण

 

सीता सुनती हैं इस समाचार को

और रहती हैं ख़ामोश

कुछ नहीं कहती

बस निहारती है रास्ता

रावण का वध करते ही

वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?

 

लंका पहुँच कर भी भेजते हैं अपना दूत

नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता

कैसे रही सीता ?

नयनों से बहती है अश्रुधार

जिसे समझ नहीं पाते हनुमान

कह नहीं पाते वाल्मीकि

 

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती

इन परिचारिकाओं से

जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी

स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की

वे रावण की अनुचरी तो थीं

पर मेरे लिए माताओं के समान थीं

 

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती

इन अशोक वृक्षों से

इन माधवी लताओं से

जिन्होंने मेरे आँसुओं को

ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर

पर राम तो अब राजा हैं

वह कैसे आते सीता को लेने ?

 

विभीषण करवाते हैं सीता का शृंगार

और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर

पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है

जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह !

 

वहीं रोक दो पालकी,

गूँजता है राम का स्वर

सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप !

ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता

क्या देखना चाहते हैं

मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर

चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ ?

 

अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता

भूल जाती है पति-मिलन का उत्साह

खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बन्दिनी की तरह !

 

कुठाराघात करते हैं राम ---- सीते, कौन होगा वह पुरुष

जो वर्ष भर पर-पुरुष के घर में रही स्त्री को

करेगा स्वीकार ?

मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो

 

उसने तुम्हें अंक में भर कर उठाया

और मृत्युपर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा

मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना

पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह !

 

वाल्मीकि के नायक तो राम थे

वे क्यों लिखते सीता का रुदन

और उसकी मनोदशा ?

उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने

कि क्या यह वही पुरुष है

जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण

क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में

मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल

और भटकी थी वन-वन !

 

हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में

हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन

वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में

पर रावण पुरुष था,

उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया

भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए इतिहास में !

 

यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि

क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी !

 

आगे की कथा आप जानते हैं

सीता ने अग्नि-परीक्षा दी

कवि को कथा समेटने की जल्दी थी

राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए

नगरवासियों ने दीपावली मनाई

जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए

 

आज इस दशहरे की रात

मैं उदास हूँ उस रावण के लिए

जिसकी मर्यादा

किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी

 

मैं उदास हूँ कवि वाल्मीकि के लिए

जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख सके

 

आज इस दशहरे की रात

मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए

उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए !

 

अज्ञात~