परिंदों से कैसा परहेज़
चीखों से अच्छी चहचहाहट होती है
गुलेल न चला,उन्हें न उड़ा
उन्हें चहकने दे
उनकी चहचहाहट न दबा
भलें उनके लिए घर के रोशनदान न खोल
छज्जे पर तो बैठने दे
परिंदे तो प्रवासी होते है
प्रवासी भी परिंदे ही होते है।।
मनीषा शर्मा~
ये धरती इतनी विशाल है। हर कोई इस छोर से उस छोर तक जाकर देखना चाहता है।
हर कोई परिंदा बन जाना चाहता है।
तो चलों उड़ चलों, मैं इस छोर से उड़ूँ तुम उस छोर से।
हर कोई परिंदा बन जाना चाहता है।
bahut khubsoorat khayaal!
ReplyDeleteShukriya Amit
DeleteBeautiful
ReplyDeleteBeautiful
ReplyDeleteThank u Prabhjeet ji
DeleteWah..............what a beautiful description of desires of mind , lovely choice of expresions
ReplyDeleteThank u Anil :)
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