जण-गण-मन जॉर्ज पंचम के लिए नहीं लिखा गया था।
1911 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन के लिए उन्होंने 'जण गण मन' गीत लिखा। यही गीत आगे चलकर हमारा राष्ट्रगान बना। विडंबना देखिए उन्हीं दिनों कुछ लोग कहने लगे थे कि 'जण गण मन' गीत रवीन्द्रनाथ ने 1911 में जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर उनकी स्तुति में लिखा था, केवल यही नहीं, उन्होंने खुद यह गीत उनके समक्ष गाया भी था। रवीन्द्रनाथ को इस दुनिया से विदा हुए 110 साल हो गए हैं, लेकिन देश के एक बड़े तबके में हम आज भी उस अफवाह को सच के रूप में चर्चित देखते हैं। लोगों की आंखों पर पड़े झूठ के पर्दे को हटाने के उपक्रम में सुविख्यात रवीन्द्र साहित्य विशेषज्ञ पुलिनविहारी सेन को इसी संर्दभ में लिखी रवीन्द्रनाथ की एक चिट्ठी को देखना समीचीन होगा।
प्रियवर,
तुमने पूछा है कि 'जन गण मन' गीत मैंने किसी खास मौके के लिए लिखा है या नहीं। मैं समझ पा रहा हूं कि इस गीत को लेकर देश में किसी-किसी हलके में जो अफवाह फैली हुई है, उसी प्रसंग में यह सवाल तुम्हारे मन में पैदा हुआ है। फासिस्टों से मतभेद रखने वाला निरापद नहीं रह सकता, उसे सजा मिलती ही है, ठीक वैसे ही हमारे देश में मतभेद को चरित्र का दोष मान लिया जाता है और पशुता भरी भाषा में उसकी निंदा की जाती है-मैंने अपने जीवन में इसे बार-बार महसूस किया है, मैंने कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया।
तुम्हारी चिट्ठी का जवाब दे रहा हूं, कलह बढ़ाने के लिए नहीं, इस गीत के संबंध में तुम्हारे कौतूहल को दूर करने के लिए।
एक दिन मेरे परलोकगत मित्र हेमचन्द्र मल्लिक विपिन पाल महाशय को साथ लेकर एक अनुरोध करने मेरे यहां आए थे। उनका कहना था कि विशेष रूप से दुर्गादेवी के रूप के साथ भारतमाता के देवी रूप को मिलाकर वे लोग दुर्गा पूजा को नये ढंग से इस देश में आयोजित करना चाहते हैं, उसकी उपयुक्त भक्ति और आराधना के लिए वे चाहते है कि मैं गीत लिखूं।मैंने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि यह भक्ति मेरे अंत: करण से नहीं हो सकेगी, इसलिए ऐसा करना मेरे लिए अपराध जैसा होगा। यह मामला अगर केवल साहित्य का होता तो फिर भले ही मेरा धर्म-विश्वास कुछ भी क्यों न हो, मेरे लिए संकोच की कोई वजह नहीं होती, लेकिन भक्ति के क्षेत्र में, पूजा के क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश गर्हित है। इससे मेरे मित्र संतुष्ट नहीं हुए मैंने लिखा था 'भुवनमोमोहिनी',यह गीत पूजा-मंडप के योग्य नहीं था, यह बताने की जरूरत नहीं है। दूसरी ओर इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह गीत भारत की सार्वजनिक सभाओं में भी गाने के लिए उपयुक्त नहीं है, क्योकि यह कविता पूरी तरह हिंदू संस्कृति के आधार पर लिखी गई है। गैर हिंदू इसे ठीक से ह्दयंगम नहीं कर सकेंगे।
मेरी किस्मत में ऐसी घटना एक बार फिर घटी। उस साल भारत के सम्राट के आगमन का आयोजन चल रहा था। राज सरकार के किसी बड़े पद पर कार्यरत मेरे किसी मित्र ने मुझसे सम्राट की जयकार के लिए एक गीत लिखने का विषेश अनुरोध किया था। यह सुनकर मुझे हैरानी हुई थी, उस हैरानी के साथ मन में क्रोध का संचार भी हुआ था। उसी की प्रबल प्रतिक्यिस्वरूप मैंने 'जन गण मन अधिनायक' गीत में उस भारत भाग्यविधाता का जयघोष किया था,उत्थान-पतन के मित्र के रूप में युगों से चले जा रहे यात्रियों के जो चिर सारथी हैं, जो जन गण के अंतर्यामी पथ परिचायक हैं, वे युगयुगान्तर के मानव भाग्य रथ चालक जो पंचम या षष्ठ या कोई भी जार्ज किसी भी हैसियत से नहीं हो सकते, यह बात मेरे उन राजभक्त मित्र ने भी अनुभव की थी, क्योंकि उनकी भक्ति कितनी ही प्रबल क्यों न रही हो, उनमें बुद्धि का अभाव नहीं था। आज मतभेदों की वजह से मेरे प्रति क्रोध की भावना का होना, दुश्चिंता की बात नहीं है, लेकिन बुद्धि का भ्रष्ट हो जाना एक बुरा लक्षण है।
इस प्रसंग में और एक दिन की घटना याद आ रही है। यह बहुत दिन पहले की बात है। उन दिनों हमारे राष्ट्रनायक राजप्रासाद के दुर्गम उच्च शिखर से प्रसाद वर्षा की प्रत्याशा में हाथ फैलाए रहते थे। एक बार कहीं पर वे कुछ लोग शाम की बैठक करने वाले थे। मेरे परिचित एक सज्जन उनके दूत थे। मेरी प्रबल असहमति को बावजूद वे मुझे बार-बार कहने लगे कि मैं यदि उनके साथ नहीं गया तो महफिल नहीं जमेगी। मेरी वाजिब असहमति को अंत तक बरकरार रखने की शक्ति मुझे विधाता ने नहीं दी। मुझे जाना पड़ा। जाने के ठीक पहले मैंने निम्नांकित गीत लिखा था-
'मुझे गाने के लिए न कहना...'
इस गीत को गाने के बाद फिर महफिल न जम सकी। सभासद बुरा मान गए।
बार-बार चोट खाकर मुझे यह समझ में आया कि बादलों की गति देखकर हवा के रूख का अनुसरण कर सकें तो जनसाधारण को खुश
करने का रास्ता सहज ही मिल जाता है, लेकिन हर बार वह श्रेयस्कर रास्ता नहीं होता, सच्चाई का रास्ता नहीं होता, यहां तक कि चलते पुर्जे कवि के लिए भी वह आत्मा की अवमानना का पथ होता है। इस मौके पर मनु के एक उपदेश की याद आ रही है जिसमें उन्होंने कहा है-सम्मान को जहर जैसा मानना, और निंदा को अमृत जैसा मानना। इति।
शुभार्थी
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर
"सम्मान को जहर जैसा और निंदा को अमृत जैसा मानना"
ReplyDeleteजी बिल्कुल राकेश जी, आपने बिल्कुल सही लाईन चुनी।
Deleteआजकल के हालात को देखते हुए ये भी ठीक है 'हमारे देश में मतभेद को चरित्र का दोष मान लिया जाता है और पशुता भरी भाषा में उसकी निंदा की जाती है '
Bahut vishisht aur rochak jaankari! Thank you Manisha:)
ReplyDeleteLog suni sunae baato par wishwas kartai hai, kabhi bhi khud sachchae jannai ki koshish nahi kartai. Aaj ki taarekh mai jo logo kai andar dar aur nafrat hai, wo khud uski taih tak jaakar agar samjhai to aaj Aurangzeb bura nahi hoga, Akbar mahan hi rahaiga, kabhi bhi raavan dahan nahi hoga, koe bhi naita kabhi chunav nahi jeetaiga, aur Maggie ban nahi lagaiga :)
DeleteRavinder Nath thakur is my favourite. Always adored him. One in millions.
ReplyDeleteYou are right Abha, he truly was one in a million.
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