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Tuesday, 25 August 2015

चिटकते काँचघर- पुस्तक समीक्षा



चिटकते काँचघर--एक बेहतरीन और दिलचस्प काव्यसंग्रह लगा। इसे पढ़ कर लगा कि यह दिल से लिखा गया काव्य हैं, इसकी रचनाएँ कोई तुकबंदी नहीं वरन लेखक के मन व सोच के वास्तविक भाव को दर्शाती है।

ये काव्य संग्रह तीन भाग में विभाजित किया गया है, जिनमें अधिकतर कविताएँ ब्लेंक वर्स में लीखी गई है।
(1)जीवन (2)विस्मय (3)आभार
तीनों खण्ड अपनेआप में परिपूर्ण हैं।

इस काव्य संग्रह पढ़ कर अहसास हुआ कैसे एक साधारण रचनाकार भी उच्चकोटी की रचना कर बैठता हैं। इन रचनाओं को पढ़ कर लगता है अमित आंतरिक रूप में कितने स्वस्थ और सुसंस्कृत है।

इस पुस्तक के प्रथम भाग (जीवन) को पढ़ कर लगता है रचियता स्वयं को यथासंभव जानता है।

'जीवन' में,
'उदासी''बेकार'हैं।गम न कर 'सीले पटाखो' का,ठहाकों से शोर मचायेंगे आसमां सर पे उठायेंगे! 'हसरतें' 'इश्क' में 'अधुरा' और 'तन्हा' न समझ खुद को 'अँधेरे' से 'रिहाई' का 'वक्त'आ गया हैं। 'सर्दियों की धूप' को 'लिबास' की तरह ओढ़ ले।'ज़िंदगी' को 'रेलगाड़ी' ही बना और हर 'हाल' में 'सफ़र' जारी रख अनवरत, अन्तहीन।कोई 'भूल गया' तुम्हें उसका गम न कर।चुभती हैं 'किरचें' तो कोई 'रफ़ूगर' या 'मरहम' न ढूंढ। एक चमकता 'शरारा' हो तुम,प्यार से सहेजे जाने वाले 'बोन्साई' हो तुम।

इसका दुसरा भाग 'विस्मय' की रचनाओं की गहराई को मैं छू सकती हूं।

'विस्मय'(घबराहट) में,
'शुक्रिया' भी 'शिकायतें' भी 'सदमा' भी और उसका 'भरम' भी। 'बस एक छोटी सी शिकायत' तो नहीं लगती हैं ये'ज़माने के नाम', 'दोस्तों के नाम','रक़ीबों के नाम','आलोचकों के नाम','भाईयों के नाम','दुश्मनों के नाम','उनके नाम', 'प्यारे हमदर्दों के नाम'और 'इश्वर के नाम' अपने नाम भी 'कुछ तो कर दो'।
'नैनीताल:spt'12','नैनीताल:November,2011','मसूरी',
में अक्षर दिखाई नहीं सुनाई देते हैं। नैनीताल की बारिश महसूस होने के साथ नैनीताल के बदलते स्वरूप का दर्द भी महसूस होता हैं। प्यारी मसूरी अपने आकर्षण में बांधती है।

तीसरा भाग 'आभार'को पढ़ने के पश्चात इतना ही कहना चाहुंगी कि 'आभार' को पाठक पढ़ते समय रचनाकार जो कह रहा हैं उस पर नहीं, बल्कि उसकी रचना जो कह रही है, उस पर विश्वास करें।

सिरखपाऊ किताबों से अलग 'चिटकते काँचघर' सौभाग्य है। आपकी लिखी हुई चीजों को पढ़ने के लिए मैं सदैव उत्सुक रहूंगी।

फिर भी कुछ चीजें है इस किताब में जो खटकती है, जैसे-

1)इसके पन्नों का खालीपन खटकता है, रचनाओं के साथ कुछ स्केच होते तो बेहतर होता, या रचनाएँ पृष्ठ के मध्य में लिखी जाती(बिना स्केच)तो भी ये खालीपन नहीं अखरता।

2)किताब के अंत में 7 पेज 'पाठक प्रतिक्रियाएँ' को देना बहुत ज्यादा लगा।

3)हिंदी हमारी राष्ट्रीय व मातृ भाषा है मगर वास्तविकता यह हैं कि आम बोल-चाल में इसका इस्तेमाल ना के बराबर हो गया है। लेखक अगर एक या दो पेज key के लिए देते तो बेहतर रहता। आप पाठक से ये नहीं कह सकते कि(key न देना यही साबित करता हैं) वो गुगल सर्च कर ले।

बहरहाल, लिखी हुई किसी भी रचना को समझने व उनका मुल्यांकन करने के लिए आवश्यक नहीं कि हम अच्छे लेखक भी हो, आवश्यक होता है कि कितनी सहजता से हम उन रचनाओं को समझ व महसूस कर पाते हैं। 'चिटकते काँचघर' को पढ़ कर पाठक इसकी रचनाओं को महसूस कर पायेंगे।

किताब सम्बन्धित जानकारी-

किताब का नाम- चिटकते काँचघर
लेखक का नाम- अमित अग्रवाल
किताब की कीमत- 199/$15
किताब की पब्लिशिंग कम्पनी का नाम- रोचक पब्लिशिंग
लेखक का संपर्क पता- amitagarwal1959@gmail.com
लेखक के Blog की Link- http://amitaag.blogspot.in

मनीषा शर्मा~

2 comments:

  1. आपकी सुन्दर समीक्षा के लिए धन्यवाद कहना कमतर होगा, मनीषा!
    जो कमियाँ आपने संग्रह / प्रकाशन में बताईं हैं, उनके लिए शुक्रिया:) मैं पूर्णतयाः सहमत हूँ!
    केवल एक बात के लिए अपना दृष्टिकोण साझा करना चाहूँगा…स्थानाभाव के रहते भी मैंने 'पाठक प्रतिक्रियाएँ' को इसलिए प्रमुखता दी क्योंकि मेरे पास प्रिय पाठक मित्रों का आभार प्रकट करने का और कोई साधन न था …और उनके बिना, आपके बिना मैं कुछ भी नहीं, मेरी कविता कुछ भी नहीं...आप सब का प्रेम मेरे लिए सर्वोपरि है…
    मेरी रचनाओं के लिए, मेरे लिए और 'चिटकते काँचघर' पर आपने जो कुछ लिखा है वह अद्भुत है…बहुत-बहुत आभार!

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    1. शुक्रिया अमित, इसमें कोई शक नहीं कि आपकी रचनाएँ बेहतरीन है। पर मेरी हिन्दी न तो लिखने में अच्छी हैं और न ही समझने में, इसलिए कई बार कुछ शब्द पर अटक जाती हूं, इसलिए मुझे लगा key होनी चाहिए थी।

      शुक्रिया सहर्ष इस Review को सराहने के लिए।

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